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ग़ज़ल
लो साहब आफ़्ताब कहाँ और हम कहाँ
अहमक़ बनें हम इस को न समझें अगर ग़लत
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
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ग़ज़ल
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
शेर
बे-चेहरगी की भीड़ में गुम है मिरा वजूद
मैं ख़ुद को ढूँढता हूँ मुझे ख़द-ओ-ख़ाल दे